यह तो वही बात हुई कि जैसे किसी ने कपड़ों की एक गुड़िया बनाई हो, और हम एक—एक कपड़ा निकालते चले जाएं। एक कपड़े को निकालें, दूसरा कपड़ा बचे। उसे निकालें, तीसरा निकल आए। निकालते चले जाएं, लेकिन कपड़े की ही गुड़िया हो तो आखिर में सब कपड़े निकल जाएंगे, गुड़िया पीछे बचेगी नहीं। आखिर में शून्य हाथ लगेगा।