मैं बहता रहा उसके एहसासों में, पता नहीं चला कब वक़्त निकलता रहा। मैं तो हमेंशा उसके विचारों में ही खोया रहा, पता नहीं कब सुहानी शाम ढलती रही। कहना चाहा उसको ना जाने कितनी मर्तबा, पर दिल के अल्फ़ाज जुबा पर आ ही ना सके। वह भी तो नासमझ मेरी ख़ामोशी को पढ़ ना पाई, अधूरी सी रह गई हमारी दास्ता और वक़्त निकलता रहा। अब तो घूम रहा हूंँ रात की तन्हाइयों में, पता नहीं कब मेरे दिल को सुकून मिलेगा। -Nitesh Prajapati ❤ प्रतियोगिता- 623 ❤आज की ग़ज़ल प्रतियोगिता के लिए हमारा विषय है 👉🏻🌹"वक़्त निकलता रहा"🌹 🌟 विषय के शब्द रचना में होना अनिवार्य है I कृप्या केवल मर्यादित शब्दों का प्रयोग कर अपनी रचना को उत्कृष्ट बनाएं I