बचपन और माँ वो भी क्या दिन थे जब ना धूप की फिक्र होती थी ना गरमी की जब यूँ पसीने से लथपथ बेधड़क खुली सड़कों पर भाग रहे होते थे और जब कदम लड़खड़ा जाते थे और हम गिर पड़ते थे तो चोट से ज्यादा डर कपड़े गन्दे होने का होता था के कही घर जा कर माँ कि डाट ना सुननी पड़े वो भी क्या दिन थे जब माँ की डाट से डरते थे। जब माँ की डाट से ही पढ़ते थे। आज माँ डाटटी नहीं सिर्फ प्यार करती है। आज हम इतने बड़े हो गए हैं कि माँ के बिना कहें हीं पड़ लेते है माँ के बिना कहें हीं समझ जाते है जब गिरते हैं किसी राह में तो माँ को बिना बताएं हीं सम्भल जाते है क्योंकि डरते हैं कहीं हमारी माँ हमारी फिक्र से और बीमार ना हो जाए। जाने कहां गया वो बचपन वो बेफिक्र मस्ती वाले दिन-रात अब तो बहुत खुशी मिलती हैं खा कर माँ कि डाट।। #बचपनकीयादे