इतना खुश हूँ के खुद को अब बदज़ात समझता हूँ । ख़ुदी को खामोश करने, दुखों से गले मिलता हूँ ।। क्योंकि वो रोती नहीं हँसती सुनाई देती है । उन आंसुओं में शायद हस्ती दिखाई देती है । मैं तो हाथ थामे सड़क पर आगे बढ़ाता हूँ । खुले मैदानों में पीछे हट जाता हूँ । पहले था घना दरख़्त आज भी उतना ही तना हूँ । उनकी छाँव न है मेरी, पर सहारा बना हूँ । Part 4 of गाथा-ए-दरख़्त Click on #GathaEDarakht for more parts. छड़ी इतना खुश हूँ के खुद को अब बदज़ात समझता हूँ ।