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​जेठ की, ​तपती भूमि पर, ​आषाढ़ मे गिरी, ​उसके नैनों

​जेठ की,
​तपती भूमि पर,
​आषाढ़ मे गिरी,
​उसके नैनों से,
​विश्वास की बूंद,
​भाप बनकर उड़ गई,
​पीड़ाओं की चलती लू मे,
​उन बिखरे दिनों की,
​इक टूटी साँझ को,
​उसकी हथेलियों पर,
​इक तिरछी लकीर उभर आयी,
​आशाओं की,
​जिसे..काटकर आगे बढ़ी थी,
​उसके हिस्से की,
​समर्पण की लकीर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे 

#अहिल्या

​जेठ की,
​तपती भूमि पर,
​आषाढ़ मे गिरी,
​उसके नैनों से,
​जेठ की,
​तपती भूमि पर,
​आषाढ़ मे गिरी,
​उसके नैनों से,
​विश्वास की बूंद,
​भाप बनकर उड़ गई,
​पीड़ाओं की चलती लू मे,
​उन बिखरे दिनों की,
​इक टूटी साँझ को,
​उसकी हथेलियों पर,
​इक तिरछी लकीर उभर आयी,
​आशाओं की,
​जिसे..काटकर आगे बढ़ी थी,
​उसके हिस्से की,
​समर्पण की लकीर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे 

#अहिल्या

​जेठ की,
​तपती भूमि पर,
​आषाढ़ मे गिरी,
​उसके नैनों से,
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