जेठ की, तपती भूमि पर, आषाढ़ मे गिरी, उसके नैनों से, विश्वास की बूंद, भाप बनकर उड़ गई, पीड़ाओं की चलती लू मे, उन बिखरे दिनों की, इक टूटी साँझ को, उसकी हथेलियों पर, इक तिरछी लकीर उभर आयी, आशाओं की, जिसे..काटकर आगे बढ़ी थी, उसके हिस्से की, समर्पण की लकीर, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #अहिल्या जेठ की, तपती भूमि पर, आषाढ़ मे गिरी, उसके नैनों से,