पता नही अपनी जिद में और कितने दिल तोड़ेंगे ये समाज के ठेकेदार बचपन में सिखाते है प्रेम का पाठ सबको और जरूरत पर उसी को बांध देते है दायरों में कभी जात-पात,कभी अमीरी गरीबी और कभी अपनी झूठी शान की खातिर यही सब अंत में करना होता है तो बचपन से प्रेम का अंकुर क्यूँ डाला जाता है मन की जमीं में और जब वो अंकुर वृक्ष बन अपना विस्तार कर लेता है फिर क्यूँ काट दिया जाता है उस प्रेम वृक्ष की शाख को!! #समाज_के_ठेकेदार पता नही अपनी जिद में और कितने दिल तोड़ेंगे ये समाज के ठेकेदार बचपन में सिखाते है प्रेम का पाठ सबको और जरूरत पर उसी को बांध देते है दायरों में कभी जात-पात,कभी अमीरी गरीबी और कभी अपनी झूठी शान की खातिर यही सब अंत में करना होता है तो बचपन से प्रेम का अंकुर क्यूँ डाला जाता है मन की जमीं में और जब वो अंकुर वृक्ष बन अपना विस्तार कर लेता है