कितना आसान है कहना... निकल जाओ मेरे जीवन से! क्या किसी शौक से पड़े हैं सुन्न, मन, हाथ, पैर और जुबान यूं! कदर अपनी नहीं जब आपको किस फजीहत से बचेंगे आप? मेहरबानियां मर्जी की मेहमान.. मुजरिम अपने स्वाभिमान के खुद! कीमत लगाई हरदम कम अपनी.. सबको हुए हासिल, ये वाजिब..! बारी-बारी गला रेता, अरमां तोड़े.. नाकाबिल रहे, तारीफ़ यही मुनासिब! कह देते कि नहीं हैं तुम्हारे काबिल.. फ़क़त अपने काबिल जरा जो बचते! कितना आसान है कहना... निकल जाओ मेरे जीवन से! क्या किसी शौक से पड़े हैं सुन्न, मन, हाथ, पैर और जुबान यूं! कदर अपनी नहीं जब आपको किस फजीहत से बचेंगे आप? मेहरबानियां मर्जी की मेहमान