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जग निष्ठुर।। आजीवन मन मे व्यथा रही, औरों ख़ातिर ये

जग निष्ठुर।।

आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।
ये कलम संगिनी बन उभरी,
पीड़ा रो रो कर ये बता रही।

कहां आरम्भ कहां अंत हो,
दुविधा कोहरा बन छाई है।
कौन वज़ीर और रानी कौन,
पीड़ा मोहरा बन आयी है।
छल प्रपंच के जाल में उलझा,
मनुज स्वीकृति से आदी है।
मैं मेरा का युद्ध चला बस,
अवगुण विकृति ये व्याधी है।
कोई उपचार नहीं वैद्य नहीं,
कस्तूरी सी नाभी बसती है।
कुछ मोह-जनित मुद्रा इसकी,
कई खेल नई सी रचती है।
भ्रमित मैं वन वन फिरता हूँ,
ये पीड़ा कैसी जो सता रही।
आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।

मतला बहर काफ़िया रदीफ़,
इनसे लेखन का श्रृंगार हुआ।
पर-कटे परिंदों की गाथा हो,
कब मन मे ऐसा विचार हुआ।
ख़्याल की कश्ती बीच भँवर,
बस डूबती और उबरती है।
रक्त-वाहक धमनियों में भी,
ज्वार नहीं क्यूँ उमड़ती है।
चलो आज लड़ लें ख़ुद से,
खत्म करें समर जो बाकी है।
कुछ उनकी भी सुन पढ़ लें,
जिनके लिए सहर ये झांकी है।
उनको भी अधिकार मिले,
जिनके बल पे ये सत्ता रही।
आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।

©रजनीश "स्वछंद" जग निष्ठुर।।

आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।
ये कलम संगिनी बन उभरी,
पीड़ा रो रो कर ये बता रही।

कहां आरम्भ कहां अंत हो,
जग निष्ठुर।।

आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।
ये कलम संगिनी बन उभरी,
पीड़ा रो रो कर ये बता रही।

कहां आरम्भ कहां अंत हो,
दुविधा कोहरा बन छाई है।
कौन वज़ीर और रानी कौन,
पीड़ा मोहरा बन आयी है।
छल प्रपंच के जाल में उलझा,
मनुज स्वीकृति से आदी है।
मैं मेरा का युद्ध चला बस,
अवगुण विकृति ये व्याधी है।
कोई उपचार नहीं वैद्य नहीं,
कस्तूरी सी नाभी बसती है।
कुछ मोह-जनित मुद्रा इसकी,
कई खेल नई सी रचती है।
भ्रमित मैं वन वन फिरता हूँ,
ये पीड़ा कैसी जो सता रही।
आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।

मतला बहर काफ़िया रदीफ़,
इनसे लेखन का श्रृंगार हुआ।
पर-कटे परिंदों की गाथा हो,
कब मन मे ऐसा विचार हुआ।
ख़्याल की कश्ती बीच भँवर,
बस डूबती और उबरती है।
रक्त-वाहक धमनियों में भी,
ज्वार नहीं क्यूँ उमड़ती है।
चलो आज लड़ लें ख़ुद से,
खत्म करें समर जो बाकी है।
कुछ उनकी भी सुन पढ़ लें,
जिनके लिए सहर ये झांकी है।
उनको भी अधिकार मिले,
जिनके बल पे ये सत्ता रही।
आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।

©रजनीश "स्वछंद" जग निष्ठुर।।

आजीवन मन मे व्यथा रही,
औरों ख़ातिर ये कथा रही।
ये कलम संगिनी बन उभरी,
पीड़ा रो रो कर ये बता रही।

कहां आरम्भ कहां अंत हो,