यह सभ्य समाज, बाँध देता है, जीव को, कुछ जंग लगी जंजीरों से, खिंच दी जाती है एक अमिट रेखा... हृदय की तलहटी में, देह भेद की, जो छीन लेती है, एक्य उस परम् तेज से... और समेट देती है, जीव को दृश्यहीन वृत्त में... कभी देखना इनसे परे जाकर, वहाँ बसेरा है, अनंत संभावनाओ का, अर्धनारीश्वर के रूप में, जहाँ एक्य होता है, जीवन का जीव से... जहाँ लीन होता है " मैं " परम् तेज उस ब्रह्म में..... यह सभ्य समाज, बाँध देता है, जीव को, कुछ जंग लगी जंजीरों से, खिंच दी जाती है एक अमिट रेखा... हृदय की तलहटी में, देह भेद की, जो छीन लेती है,